5 जुलाई 2018 को विपक्षी दलों ने झारखंड बंद में एक खास बात थी। राजधानी रांची में अधिकांश दुकानदारों ने दुकानें बंद कर दी थीं। सवारी गाड़ियां नहीं के बराबर चल रही थीं। स्कूल-कालेज बंद कर दिए गए थे। लेकिन तमाम विपक्षी दलों के कार्यालयों के आसपास चाय और पान की दुकानें खुली हुई थीं। यह चिराग तले अंधेरा की मिसाल थी या बंद में जुटे नेताओं, कार्यकर्ताओं की निजी जरूरतों को ध्यान में रखकर खुलवाए गए थे। पता नहीं। दूसरा ही कारण ज्यादा मौज़ू लगता है। बंद के समय ज्यादातर लोग तोड़-फोड़ और संपत्ति के नुकसान के डर से स्वयं अपना कारोबार बंद कर देते हैं। बंद संचालकों के कार्यालयों के आसपास के दुकानदारों को नुकसान का डर नहीं सताता ऐसी बात नहीं। लकड़बग्घे की मांद के पास रहकर कोई मांसाहार को विरोध नहीं कर सकता। वे साधारण दो कौड़ी के दुकानदार विपक्षी दल के आफिस के पास बैठकर बंद का विरोध अथवा सरकार का समर्थक होने का खतरा नहीं मोल ले सकते। जरूर उन्हें विपक्षी दलों की ओर से अभयदान मिला होगा। ज्यादा संभावना तो यह है कि उन्हें दुकान खुली रखने की हिदायत पहले ही दे दी गई होगी। आखिर कार्यकर्ता और नेता बंद कराते-कराते जब थक जाएंगे तो उन्हें चाय. पान और गुटका की तलब तो होगी ही। कहां जाएंगे बिचारे। गुटका तो मान लीजिए एक दिन पहले से लेकर रखा जा सकता है लेकिन चाय और पान। ये चीजें तो बासी नहीं चल सकतीं। येे ऐसी चीजें हैं कि जरूरत पर नहीं मिले तो इंसान का मन बेचैन हो जाता है। उसका सारा पराक्रम मंद पड़ जाता है। यही चीजें उसके अंदर ऊर्जा का संचार करती हैं। राजनीति में सबसे पहले अपनी जरूरतों का खयाल रखना होता है। अपने कार्यकर्ताओं का ध्यान रखना होता है। बंद का आह्वान करने वाले जानते हैं कि 80 प्रतिशत बंदी तो तोड़-फोड़ के डर से हो जाएगी। जो 20 फीसदी लोग ढिठाई पर उतरेंगे उनके लिए लाठी-डंडा लेकर सड़क पर उतरना होगा। सरकार चाहे जितना फोर्स सड़कों पर भर दे वे उसके साथ आंख मिचौनी करते हुए 20 प्रतिशत के पास पहुंच जाएंगे। उनमें अधिकांश उन्हें देखते ही शटर गिरा देंगे। कुछ ज्यादा ढीठाई करेंगे तो उनपर बल प्रयोग किया जाएगा या फिर छोड़ दिया जाएगा। बंद की सफलता 80 प्रतिशत होने पर भी स्वीकार्य हो जाती है। लोगों को सिर्फ इतना पता होना चाहिए कि बंद किसने कराया है और उसकी ताकत क्या है। जहां दर्जन भर दल बंद का आह्वान कर रहे हों वहां रिस्क कौन लेगा। लेकिन राजनीतिक दल अपनी चाय-पान-गुटका की तलब का परित्याग कैसे कर सकते है। पूरा शहर बंद हो, पूरा राज्य बंद हो, भारत बंद हो जाए। आमलोगों के चाहे सारे कार्य रुक जाएं। मरीजों का इलाज, बच्चो की पढ़ाई बाधित हो लेकिन उनकी जरूरतें तो हर हाल में पूरी होनी हैं। कार्यालय के आसपास की कुछ दुकानें तो हिदायत देकर खुलवानी ही पड़ती है। चाय-पान-गुटका पर राजनीतिक दलों का लोकतांत्रिक अधिकार है। िसे उनसे कोई नहीं छीन सकता।
व्यंग्यवाण
Friday, 6 July 2018
Thursday, 5 July 2018
हमें पांव नहीं बैसाखी चाहिए
हम अपने पांव पर खड़े होना नहीं चाहते। हमेशा एक वैसाखी की तलाश में रहते हैं। हमारी मानसिकता को इसी सांचे में ढाला गया है। सरकार इस मामले में बहुत उदार है। वह हमारी क्रय शक्ति को बढ़ाने की कोशिश नहीं करती। सब्सिडी देकर उपकृत कर देती है। गरीबों को 50 रुपये किलो चावल खरीदने लायक नहीं बनाती एक रुपये किलो चावल का इंतजाम कर देती है। बुनियादी शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं करती उच्च शिक्षा और नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था कर देती है। फिर चुनाव के समय उसे एहसानों की याद दिलाकर वोट मांगती है। विपक्षी लोग समझाते हैं कि सरकार ने हमें दिया क्या। वह चाहती तो और भी बहुत कुछ दे सकती थी लेकिन हमें हमारे अधिकार से वंचित रखा। जब वे सत्ता में आएंगे तो इसमें बढ़ोत्तरी करेंगे। सरकारी खैरात पर जनता का अधिकार है। वे जनता को उसका हक़ दिलाकर ही मानेंगे। उन्हें सत्ता का मोह नहीं है लेकिन वे किसी तरह का अन्याय सहन नहीं कर सकते। सत्तारूढ़ दल अन्याय कर रहा है।
आजाद भारत में राजनीति का एकमात्र प्रचलित मंत्र है-जनता को कभी स्वावलंबी न होने दो। हमेशा अपनी अनुकंपा का मुहताज़ रहने दो। तभी तो एहसान जताकर उसके वोटों पर हक़ जताया जा सकेगा। जाते जाते अंग्रेजों ने यह भी सिखा दिया था कि जनता को कभी एक न होने दो। उसे बांटकर रखो। तभी तुम्हारा वर्चस्व कायम रहेगा और तुम्हारी कमियां ढकी हुई रहेंगी। सभी दलों के लोग इसपर अमल करते हैं। कोई सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास करता है तो कोई जाति के नाम पर लोगों को बांटकर अपनी दुकान चलाता है। जनता सबकुछ समझती है लेकिन भावनाओं में बहकर नेताओं की चाल सफल होने देती है। धन्य हैं हमारे राजनेता और उनसे भी ज्यादा धन्य है हमारी जनता जनार्दन।
आजाद भारत में राजनीति का एकमात्र प्रचलित मंत्र है-जनता को कभी स्वावलंबी न होने दो। हमेशा अपनी अनुकंपा का मुहताज़ रहने दो। तभी तो एहसान जताकर उसके वोटों पर हक़ जताया जा सकेगा। जाते जाते अंग्रेजों ने यह भी सिखा दिया था कि जनता को कभी एक न होने दो। उसे बांटकर रखो। तभी तुम्हारा वर्चस्व कायम रहेगा और तुम्हारी कमियां ढकी हुई रहेंगी। सभी दलों के लोग इसपर अमल करते हैं। कोई सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास करता है तो कोई जाति के नाम पर लोगों को बांटकर अपनी दुकान चलाता है। जनता सबकुछ समझती है लेकिन भावनाओं में बहकर नेताओं की चाल सफल होने देती है। धन्य हैं हमारे राजनेता और उनसे भी ज्यादा धन्य है हमारी जनता जनार्दन।
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