Thursday, 5 July 2018

हमें पांव नहीं बैसाखी चाहिए

हम अपने पांव पर खड़े होना नहीं चाहते। हमेशा एक वैसाखी की तलाश में रहते हैं। हमारी मानसिकता को इसी सांचे में ढाला गया है। सरकार इस मामले में बहुत उदार है। वह हमारी क्रय शक्ति को बढ़ाने की कोशिश नहीं करती। सब्सिडी देकर उपकृत कर देती है। गरीबों को 50 रुपये किलो चावल खरीदने लायक नहीं बनाती एक रुपये किलो चावल का इंतजाम कर देती है। बुनियादी शिक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं करती उच्च शिक्षा और नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था कर देती है। फिर चुनाव के समय उसे एहसानों की याद दिलाकर वोट मांगती है। विपक्षी लोग समझाते हैं कि सरकार  ने हमें दिया क्या। वह चाहती तो और भी बहुत कुछ दे सकती थी लेकिन हमें हमारे अधिकार से वंचित रखा। जब वे सत्ता में आएंगे तो इसमें बढ़ोत्तरी करेंगे। सरकारी खैरात पर जनता का अधिकार है। वे जनता को उसका हक़ दिलाकर ही मानेंगे। उन्हें सत्ता का मोह नहीं है लेकिन वे किसी तरह का अन्याय सहन नहीं कर सकते। सत्तारूढ़ दल अन्याय कर रहा है।
आजाद भारत में  राजनीति का एकमात्र प्रचलित मंत्र है-जनता को कभी स्वावलंबी न होने दो।  हमेशा अपनी अनुकंपा का मुहताज़ रहने दो। तभी तो एहसान जताकर उसके वोटों पर हक़ जताया जा सकेगा। जाते जाते अंग्रेजों ने यह भी सिखा दिया था कि जनता को कभी एक न होने दो। उसे बांटकर रखो। तभी तुम्हारा वर्चस्व कायम रहेगा और तुम्हारी कमियां ढकी हुई रहेंगी। सभी दलों के लोग इसपर अमल करते हैं। कोई सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास करता है तो कोई जाति के नाम पर लोगों को बांटकर अपनी दुकान चलाता है। जनता सबकुछ समझती है लेकिन भावनाओं में बहकर नेताओं की चाल सफल होने देती है। धन्य हैं हमारे राजनेता और उनसे भी ज्यादा धन्य है हमारी जनता जनार्दन।

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